Friday 12 January 2018

अलाव की चटखती लकडियों में.....

मौसम की बेरुख़ी से बेहाल
जाड़े की ठिठुरती रात में,
रेशमी गरम लिहाफ ओढ़े,
अधमुंदी पलकों से मीठे ख़्वाब 
देखने की कोशिश में 
करवटें बदलते लोग

आलीशान इमारतों की छाँव में
कच्ची मिट्टी से बनी 
झोपड़पट्टियों के बीच
जलते अलाव को घेरकर बैठे 
सुख-दुख की बातें करते
सिहरते सिकुडे़ लोग 
अलाव की चटखती लकडियों
में पिघलाते अपना ग़म

आधी रात के बाद
बुझती आग के पास
फटी कंबल को 
बदन पर कसकर लपेटे
कुनमुनाते लोग

क्यूँ नहीं बुझते शोलों से
चिंनगारियों के
एक-एक कतरे को उठाकर
अंधेरे जीवन की डगर पर
चल पड़ते है??
छीनने अपने हिस्से का सूरज
जिसकी रोशनी से
सदा के उजाला भर जाये
कुहरे भरे जीवन में
और नरम धूप भरे
उनकी बर्फीली ठंडी रातों में

6 comments:

  1. आदरणीया / आदरणीय रचनाकार

    आपके सृजनशील सहयोग ने हमें आल्हादित किया है। इस कार्यक्रम में चार चाँद लगाने के लिए आपका तहे दिल से आभार।

    हमें पिछले गुरूवार (11 जनवरी 2018 ) को दिए गए बिषय "अलाव" पर आपकी ओर से अपेक्षित सहयोग एवं समर्थन मिला है।

    आपकी रचना हमें प्राप्त हो चुकी है जोकि संपादक-मंडल को भेज दी गयी है। कृपया हमारा सोमवारीय अंक (15 जनवरी 2018 ) अवश्य देखें। आपकी रचना इस अंक में (चुने जाने पर ) प्रकाशित की जाएगी।

    हम आशावान हैं कि आपका सहयोग भविष्य में भी ज़ारी रहेगा।

    सधन्यवाद।

    टीम पाँच लिंकों का आनंद

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  2. वाह...
    खुश हुए हम...
    अच्छा भी लगा
    सादर

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  3. वाह!!
    सुप्रभात ...जी्बन के उतार चढ़ाव को दर्शाती सुंदर भाव के साथ सार्थक रचना , साधुवाद..!

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  4. बहुत सुंदर ....

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  5. वाह.. अलाव शब्द से सामाजिक व्यवस्था पर ही लिख डाला
    बहुत बढिया।

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  6. बहुत सुन्दर...

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